विनायक दामोदर सावरकर (Vinayak Damodar Savarkar) का जन्म 1883 में महाराष्ट्र के नासिक के भगूर गांव में पिता दामोदरपंत और माता राधाबाई के यहां हुआ था. उनके दो भाई थे, गणेश और नारायण और एक बहन मैनाबाई. 1902 में पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में दाखिला लेने से पहले उन्होंने स्थानीय शिवाजी हाई स्कूल में शिक्षा प्राप्त की थी. यहां उन्होंने अपनी गतिविधियों के लिए कॉलेज से निकाले जाने से पहले भारतीय राष्ट्रवादी राजनीति में खुद को शामिल किया. हालांकि, उन्हें बीए की डिग्री लेने की अनुमति दी गई और श्यामाजी कृष्णवर्मा की मदद से उन्हें लंदन में ग्रे इन (Gray’s Inn) में लॉ की पढ़ाई करने के लिए स्कॉलरशिप भी मिली.

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वह 9 जून 1906 को लंदन के लिए रवाना हुए और 3 जुलाई को लंदन पहुंचे जहां उन्होंने तुरंत हाईगेट में ‘इंडिया हाउस’ में आवास पाया. वह इंडिया हाउस के संस्थापक श्यामाजी कृष्णवर्मा के अधीन हो गए. सावरकर ने जल्द ही इटली के राष्ट्रवादी ग्यूसेप माज़िनी (सावरकर ने माज़िनी की जीवनी लिखी थी) के विचारों के आधार पर फ्री इंडिया सोसाइटी की स्थापना की. सोसाइटी ने हर रविवार को नियमित बैठकें कीं, जहां उन्होंने भारतीय त्योहारों और देशभक्तों का जश्न मनाया, भारतीय राजनीतिक समस्याओं पर चर्चा की और भारत को आजाद कराने पर भी चर्चाएं कीं. सावरकर ने बम बनाने की तरकीबें भी भारत भेजीं. सावरकर ने स्वतंत्रता के लिए युद्ध की वकालत की और 1909 में उनकी लेखनी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम प्रकाशित हुई, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इसे तुरंत प्रतिबंधित कर दिया. 

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मई 1907 की शुरुआत में सावरकर ने 1857 के विद्रोह की 50वीं वर्षगांठ के जश्न का आयोजन लन्दन के तिलक हाउस में किया. छात्रों ने ‘1857 के शहीदों को सम्मान’ लिखा हुआ बैज पहना. झड़पें हुईं और प्रेस ने कृष्णवर्मा को दोषी ठहराया, जो बाद में लन्दन छोड़ पैरिस रवाना हो गए. उन्होंने ‘इंडिया हाउस’ का मैनेजमेंट सावरकर पर छोड़ दिया. सावरकर ने भारतीय स्वतंत्रता को आयरिश और अन्य विदेशी स्वतंत्रता आंदोलनों के साथ जोड़ा और रूसी वामपंथी नेता लेनिन से मुलाकात की.

1 जुलाई 1909 को लंदन में इंपीरियल इंस्टीट्यूट की सीढ़ियों पर मदन लाल ढींगरा ने सर विलियम कर्जन वायली को गोली मार दी थी. कप्तान कावस लालकाका ने कर्जन-विली का बचाव करने की कोशिश की और उन्हें भी गोली लग गयी थी. सावरकर वहां मौजूद नहीं थे, लेकिन कुछ स्रोतों सूत्रों के अनुसार उन्होंने ही ढींगरा के लिए रिवॉल्वर का इंतजाम किया था. जहां अधिकांश भारतीय समुदाय ने ढींगरा की कार्रवाई की निंदा की, वहीं सावरकर ने इसकी सराहना की थी. इस मामले में ढींगरा को मौत की सजा सुनाई गई थी.

इन हत्याओं के बाद लंदन में सावरकर के लिए जीवन और अधिक कठिन हो गया और वह आखिरकार जनवरी 1910 की शुरुआत में पेरिस चले गए. इस बीच इंग्लैंड में सावरकर की गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी किया गया था. वह 13 मार्च 1910 को लंदन लौट आए और उन्हें तुरंत ब्रिक्सटन जेल भेज दिया गया. यह निर्णय लिया गया कि उनपर भारत में मुकदमा चलाना चाहिए और 1 जुलाई को वह भारत के लिए रवाना किए गए. हालांकि, जहाज के फ्रांस पहुंचने पर सावरकर फरार होने में कामयाब रहे. अंग्रेजों ने उन्हें फ्रांसीसी धरती पर पकड़ने की कोशिश की और यह घटना अंतरराष्ट्रीय कानून में एक काफी प्रसिद्ध हो गया. वह 22 जुलाई को बॉम्बे पहुंचे और उन्हें तुरंत जेल ले जाया गया. उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी. 

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वे काला पानी की सजा काटने के लिए जुलाई 1911 में अंडमान द्वीप पहुंचे, जहां वे 1921 तक रहे, जब उन्हें रत्नागिरी, बॉम्बे प्रेसीडेंसी ले जाया गया, जहां उन्हें 1924 तक कैद में रखा गया. और 1937 तक नजरबंद किया गया. अपने कारावास के दौरान, उन्होंने ‘हिंदुत्व: हिंदू क्या है?’ किताब लिखी. 1937 के बाद सावरकर ने अपनी मुस्लिम विरोधी, ब्रिटिश विरोधी राजनीति जारी रखी और दक्षिणपंथी हिंदू महासभा के अध्यक्ष के रूप में गांधी की अहिंसा की राजनीति के वैचारिक विकल्प बन गए. 1966 में बॉम्बे में अपनी मृत्यु तक वे एक प्रभावी राजनेता बने रहे. 

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