रमाबाई आंबेडकर (Ramabai Ambedkar) का जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था. उनके पिता भिकु धुत्रे (वलंगकर) व
माता रुक्मिणी इनके साथ रमाबाई दाभोल के पास वंणदगांव में नदीकिनारे महारपुरा
बस्ती में रहते थे. रमाबाई के दो बहन और एक भाई था. रमाबाई की बड़ी बहन दापोली मे
रहती थीं. भिकु दाभोल बंदर में मछलियों से भरी हुई टोकरियां बाजार पहुंचाते थे.
उन्हें छाती का दर्द होने की शिकायत थी. रमा के बचपन में ही उनकी मां का बीमारी के
चलते देहांत हो गया था. मां की मृत्यु से बच्ची रमाबाई के मन को गहरा आघात पहुंचा.
छोटी बहन गौरा और भाई शंकर तब बहुत ही छोटे थे. कुछ दिन के बाद उनके पिता की भी
मृत्यु हो गई. जिसके बाद वलंगकर चाचा और गोविंदपुरकर मामा के साथ वह मुंबई चली गईं
और वहां भायखला चॉल में रहने लगीं.

सुभेदार रामजी आंबेडकर उस वक्त अपने पुत्र भीमराव आंबेडकर के लिए वधू की तलाश कर रहे थे. वहीं उन्हें रमाबाई के बारे में
जानकारी मिली और वह रमा को देखने चले गये. रमा उन्हें बेहदं पसंद आईं और उन्होंने
रमा के साथ अपने पुत्र भीमराव की शादी कराने का निर्णय किया. विवाह के लिए तारीख सुनिश्चित की गई और अप्रैल 1906 में रमाबाई का विवाह भीमराव आंबेडकर के साथ हो
गया. विवाह के समय रमा की आयु महज 9 वर्ष एवं भीमराव की आयु 14 वर्ष थी और वह 5वीं
कक्षा में पढ़ रहे थे.

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रमाबाई यशवंत की बीमारी के कारण हमेशा चिंतित
रहती थीं. लेकिन
फिर भी वह इस बात का ध्यान रखती थीं कि इससे बाबासाहेब के कामों में कोई बाधा न आए
और उनकी पढ़ाई पर कोई असर न पड़े. रमाबाई बाबा साहेब की मदद से काफी कुछ लिखना
पढ़ना भी सीख गई थीं. वहीं बाबासाहब स्वयं भी यह मानते थे कि वे बहुत भाग्यशाली
हैं, जो रमाबाई जैसी बहुत ही नेक और आज्ञाकारी जीवन साथी उन्हें मिलीं.

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रमाबाई सदाचारी और धार्मिक प्रवृति की महिला थीं.
उनके अंदर पंढरपुर जाने की बहुत इच्छा रही. आपको बता दें, महाराष्ट्र के पंढरपुर
में विठ्ठल-रुक्मणी का प्रसिद्ध मंदिर बना हुआ है. लेकिन उस समय हिन्दू-मंदिरों
में अछूतों का प्रवेश वर्जित था. आंबेडकर, रमा को समझाते कि ऐसे मन्दिरों में जाने से उनका उद्धार नहीं हो सकता जहां उन्हें अन्दर
जाने तक की इजाजत नही हो. मगर, रमा
नहीं मानती थी. एक बार रमा के बहुत जिद करने पर बाबा साहब उन्हें पंढरपुर ले ही गए.
किन्तु, अछूत होने के
कारण उन्हें मन्दिर के अन्दर प्रवेश करने का मौका नहीं मिला. और विठोबा के बिना
दर्शन किये ही उन्हें वापस लौटना पड़ा.

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बता दें, राजगृह की भव्यता और बाबा साहब की
चारों ओर फैलती कीर्ति भी रमाबाई की बिगड़ती तबियत में कोई सुधार नहीं ला सकी.
बल्कि वह
पति की व्यस्तता और सुरक्षा को लेकर बेहद चिंतित रहने लगीं. कभी-कभी वह उन लोगों
को डांट लगाती जो ‘बाबासाहब’ को उनके आराम के क्षणों में मिलने आ
जाते थे. रमाबाई बीमारी के हालत में भी डा. आंबेडकर की सुख-सुविधा का पूरा ख्याल रखती थीं. रमाबाई अपने
स्वाथ्य की उतनी चिंता नहीं थी जितना कि वो बाबा साहब के आराम का ख्याल रखती थीं.

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वहीं डॉ आंबेडकर अपने कामों में अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण रमाबाई और घर
पर ठीक से ध्यान नहीं दे पाते थे. एक दिन उनके पारिवारिक मित्र उपशाम गुरूजी से
रमाबाई ने अपनी व्यथा बताते हुए कहा कि, “गुरूजी , मैं
कई महीनों से बीमार हूं. डॉ साहब को मेरा हाल-चाल पूछने की फुर्सत नहीं है. वे हाई
कोर्ट जाते समय केवल दरवाजे के पास खड़े हो कर मेरे स्वास्थ्य के सम्बन्ध में पूछते
हैं और वही से चले जाते हैं.”

रमाबाई प्रायः बीमार रहती थीं. जिसके चलते बाबासाहेब
उन्हें धारवाड भी ले गये. लेकिन उनकी तबियत में कोई सुधार नहीं हुआ. बाबासाहब के
तीन पुत्र और एक पुत्री की मृत्यु हो गई थी. बाबासाहब बहुत उदास रहते थे. वहीं 27
मई 1935 को रमाबाई का स्वर्गवास होने से बाबासाहेब पर पर शोक और दुःखों का पहाड़ ही
टूट पड़ा. आपको बता दें, लगभग दस हजार से अधिक लोग माता रमाबाई के परिनिर्वाण में
शामिल हुए.

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बाबासाहेब अपनी पत्नी को अगाध प्रेम करते थे.
बाबसाहेब को विश्वविख्यात महापुरुष बनाने में रमाबाई का ही हाथ था. रमाबाई ने
गरीबी के दिनों में भी बड़े संतोष और धैर्य के साथ घर का निर्वाह किया और कठिनाई के
समय बाबासाहेब का साहस बढ़ाया. उन्हें रमाबाई के निधन का इतना धक्का पहुंचा कि
उन्होंने अपने बाल मुंडवा लिये. वह बहुत उदास, दुःखी और परेशान रहने लगे. वह जीवन साथी जो गरीबी और दुःखों के समय
में उनके साथ मिलकर संकटों से जूझती रही थी और अब जब की कुछ सुख पाने का समय आया
तो वह हमेशा के लिए दूर चली गई.

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