Dev Diwali: उत्तर प्रदेश के काशी में देवताओं की दीपावली यानी देव दिवाली मनाई जाती है. यह परंपरा बहुत पुरानी है. अपने इस लेख में हम आपको बताएंगे कि कैसे देवताओं के लिए सिर्फ एक दीपक जलाने से शुरू हुई यह परंपरा लाखों दीयों तक पहुंच गई और देव दिवाली के साढ़े तीन दशक के पुराने इतिहास और परंपरा के बारे में भी बताएंगे. बता दें कि काशी में देव दिवाली के दिन 84 गंगा घाटों पर दीपक ऐसे लगते हैं जैसे कि आसमान में तारे झिलमिला रहे हो.

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इस दृश्य को देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग अलग-अलग जगहों से आते हैं. लेकिन बहुत ही कम लोगों को यह मालूम होगा कि आज से करीब साढ़े तीन दशक पहले गंगा किनारे ऐसा नजारा देखने को नहीं मिलता था सिर्फ कार्तिक मास की पूर्णिमा को चंद दीपक ही जलाए जाते थे लेकिन इस आस्था को लाखों लोगों से जोड़ते हुए लोक महोत्सव के रूप में बदलने का बीड़ा अगर किसी ने उठाया तो वह थे वाराणसी के प्राचीन मंगला गौरी मंदिर के महंत और देव दिवाली के संस्थापक पंडित नारायण गुरु.

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1985 से शुरू हुआ प्रयास

साल 1985 से प्रयास शुरू कर रहे नारायण गुरु ने जानकारी देते हुए बताया कि कार्तिक मास में पंचगंगा तीर्थ का अपना स्थान है. यहां प्रातः स्नान और शाम को दीपक जलाया जाता है. पहले के समय में इस परंपरा को केवल राजा महाराजा ही किया करते थे लेकिन फिर यह लुप्त होती गई. जब उन्होंने सिर्फ एक ही पंचगंगा घाट के बगल में दुर्गा घाट पर कुछ दीपक को ही जलते देखा तो उनके मन में यह ख्याल आया कि अन्य घाटों पर दीपक क्यों नहीं जलाई जा सकते?

फिर 1985 में उन्होंने चाय, पान और अन्य दुकानों पर पत्र के जरिए दीपक और पंचगंगा घाट का महत्व बताया. जिसके चलते कुल 15 कनस्तर तेल जुटा और 15 हजार दीपक एक घाट से बढ़कर पंचगंगा घाट के आसपास के घाटों पर जलाए जाने लगे. उस वक्त लोग भी गंगा घाटों पर उतर आए. फिर 1986 में केंद्रीय देव दीपावली का गठन किया गया. जिससे सभी बिरादरी के युवक भी जुड़ गए.

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कार्तिक मास में देवता करते हैं यहां स्नान

पंडित नारायण गुरु ने बताया कि खुले मैदान कि 7 किलोमीटर की लंबाई पर एक साथ दीपक जला पाना ईश्वर की कृपा से ही संभव हो सका है अब तो वाराणसी प्रशासन और शासन की ओर से भी पिछले 3 वर्षों से दीपक तेल और बाती भी मदद के तौर पर दी जाती है उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए बताया कि देव दिवाली की शुरुआत में 5 से 8 हजार दीपक जलाए गए थे और अब 11 लाख दीपकों से कम नहीं जलते हैं. बता दें कि देव दिवाली को सफल बनाने के लिए लक्षार्चन यज्ञ भी किया जाता है.

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गाथा के मुताबिक, त्रिपुरा नाम के राक्षस का भगवान शंकर ने वध किया था. उसके पश्चात सभी देवताओं ने स्वर्ग में देव दिवाली मनाई थी. श्रद्धालु विकास यादव के अनुसार वह पंचनद तीर्थ पर यह पर्व मनाते हैं, चूंकि पूरे कार्तिक मास में देवता यहां स्नान करते हैं और वापस में उनके जाने के समय में पूर्णिमा के दिन देव दीपावली का पर्व मनाया जाता है. ठीक उसी तरह देवता का स्वागत होता है जैसे घर पर कोई अतिथि आता है.

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