साल 1992 में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति नजीबुल्लाह (Mohammad Najibullah Ahmadzai) ने कहा कि उनका विकल्प ढूंढ लीजिए और वह अपने पद से इस्तीफा दे देंगे. दरअसल, साल 1989 में अफगानिस्तान में सोवियत सेना के हटने के बाद से ही अफगान राष्ट्रपति नजीबुल्लाह की सत्ता पर पकड़ कमजोर होने लगी थी. इसके बाद से ही कई संगठन उन्हें सत्ता से हटाना चाहते थे. इसी मकसद से करीब 15 अलग-अलग मुजाहिदीन संगठन काबुल की तरफ़ बढ़ रहे थे. 

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ये संगठन नजीब को सोवियत संघ के इशारों पर नाचने वाला और नास्तिक व्यक्ति समझते थे और वह नहीं चाहते थे कि कोई ऐसा व्यक्ति अफगानिस्तान की सत्ता की बागडोर संभाले. 

कुछ ही सालों में अपने ही देश में नजीब अलग-थलग पड़ गए. जब उन्होंने देखा कि  हवा उनके विपरीत चल रही है और उनके साथ-साथ उनका परिवार भी सुरक्षित नहीं है तो उन्होंने अप्रैल 1992 में अपनी बेटी और परिवार को भारत भेज दिया. इसके बाद उन्होंने भारत से राजनीतिक शरण की मांग की और तब के भारतीय प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने उनकी मांग को स्वीकार कर लिया. 

तालिबान ने एयरपोर्ट पर कब्जा कर लिया

17 अप्रैल 1992 को उन्होंने भारत जाने का निर्णय लिया. वह अपने अंग रक्षक और भाई के साथ एयरपोर्ट की ओर रवाना हो गए. एयरपोर्ट पर भारत का हवाई जहाज उन्हें ले जाने के लिए तैयार खड़ा था, लेकिन फिर कहानी में ट्विस्ट आया. एयरपोर्ट पहुंच कर नजीब को पता चला की पूरा एयरपोर्ट ही तालिबान के कब्जे में है. साथ ही भारत के हवाई जहाज को भी हाईजैक कर लिया गया है. अफगानी राष्ट्रपति वहां से अपने घर नहीं लौटे बल्कि भारत के दूतावास में शरण मांगने पहुंच गए लेकिन भारतीय दूतावास में रहने की अनुमति उन्हें नहीं मिली. भारतीय राजदूत सतीश नाम्बियार का मानना था कि नजीब को शरण देने से वहां रह रहे भारतीय मूल के लोगों के लिए परेशानियां पैदा हो सकती थीं. इसके बाद उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के दफ्तर में शरण ली. 

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नजीब ने कहा था- पाक की शरण लेने से अच्छा मरना पसंद करूंगा 

जब भारतीय दूतावास में नजीब को शरण नहीं मिली तो उसके बाद पाकिस्तान और ईरान ने नजीबुल्लाह को मदद की पेशकश की. लेकिन नजीबुल्लाह को पाकिस्तान और ईरान पर भरोसा नहीं था. नजीब के अनुसार, वह पाकिस्तान और ईरान की मदद के बजाए मरना पसंद करेंगे.

चार साल दफ्तर में गुजारने के बाद मिली दर्दनाक मौत 

इस बीच नजीब चार सालों तक संयुक्त राष्ट्र के दफ्तर में ही रहे, इन चार सालों में संयुक्त राष्ट्र और भारत उन्हें वहां से निकालते का प्रयास कर रहे थे. फिर आई 27 सितंबर 1996 की वो तारीख जब तालिबान के लड़ाकों ने संयुक्त राष्ट्र के ऑफिस पर हमला बोल दिया. खुद को चारों ओर से घिरा पाकर उन्हें संयुक्त राष्ट्र के दूसरे दफ्तर में फोन खटखटाया लेकिन कोई जवाब नहीं मिला. 

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अब तक नजीब समझ चुके थे कि उनका अंत नज़दीक है. इसके बाद नजीबुल्लाह को जबरन उनके कमरे से निकाला गया. उन्हें बुरी तरह से मारा-पीटा गया और फिर सर को गोली से छल्ली कर दिया. इतने से तालिबानियों का मन नहीं भरा, हत्या करने के बाद नजीबुल्लाह के शव को ट्रक पर लादकर काबुल की सड़कों पर घसीटा गया उनके गुप्तांगो को काट दिया गया. इसके बाद फिर क्रेन पर लटका कर उनके शव को एक लैंप पोस्ट पर टांग दिया गया. 

तालिबान ने नजीबुल्लाह की बॉडी को उस इलाके में दफ़नाने की भी अनुमति नहीं दी.  इसके बाद उनकी शव को रेडक्रास कमिटी को सौंप दिया गया और पख़्तिया प्रदेश के गरदेज़ क्षेत्र ले जाया गया. वहां अहमदज़ई समुदाय के लोगों ने उन्हें सुपुर्द-ए-ख़ाक किया. 

आज भी अफगानिस्तान के कई लोग नजीबुल्लाह की पत्नी और बेटियों को भारत में शरण देने के लिए भारत के शुक्रगुजार हैं. लेकिन इसके साथ ही आज भी कई लोगों के मन में यह सवाल उठता है कि भारत, नजीबुल्लाह को बचाने में नाकामयाब क्यों रहा. 

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