उत्तर प्रदेश में कुछ ऐसे विधानसभा सीट हैं जहां की राजनीति को समझना काफी मुश्किल है. जनता क्या मन बनाकर रखी है इसका सियासतदारों को भनक भी लगने नहीं देती है. ऐसे सीटों पर चुनाव काफी दिलचस्प होता है जब आपको बिल्कुल नहीं पता हो की जनता किसके किस्मत का ताला खोलेगी. ऐसी ही सीटों में एक सीट है फर्रुखाबाद जिले की कायमगंज विधानसभा सीट (Kaimganj seat) जहां दो दशक से किसी भी पार्टी को यहां जनता ने दोबारा मौका नहीं दिया है.

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पिछले चुनाव की बात करें तो 1989 से यहां किसी भी पार्टी को लगातार जीत नहीं मिली है. फिलहाल कायमगंज सीट पर बीजेपी का कब्जा है. लेकिन अगर जनता ने उन्हें दोबारा मौका दिया तो पार्टी फिर से इतिहास कायम कर लेगी.

कायमगंज सीट पर अब तक जनता का फैसला

कायमगंज सीट पर 1957 में पहला चुनाव हुआ था. यहां से कांग्रेस के कद्दावर नेता सलमान खुर्शीद के भाई सुल्तान आलम खान ने जीत दर्ज की थी. 1962 में पीएसपी के सियाराम यहां से विधायक बने. 1967 में जनसंघ के जीसी तिवारी इस सीट से चुनकर विधानसभा पहुंचे. 1969 में फिर कांग्रेस ने वापसी की और इस बार सियाराम गंगवार विधायक बने. 1974 में निर्दलीय अनवर मोहम्मद पर जनता ने भरोसा जताकर विधायक बनाया.

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वहीं 1977 में जनता पार्टी के गिरीश चंद्र तिवारी काबिज हुए. 1980 में अनवर मोहम्मद जेएनपी (एससी) के टिकट पर विधानसभा पहुंचे. इसके बाद 1985 में निर्दलीय राजेंद्र सिंह और 1989 में फकरेलाल वर्मा विधायक बने. 1991 में जनता दल के इजहार आलम खान ने जीत दर्ज की. 1993 में पहली बार सपा काबिज हुई और प्रताप सिंह यादव यहां से विधानसभा पहुंचे. वहीं 1996 में भाजपा ने खाता खोला और सुशील शाक्य विधायक चुने गए.

वहीं 2002 में सलमान खुर्शीद की पत्नी और कांग्रेस प्रत्याशी लुईस खुर्शीद ने बीजेपी के सुशील शाक्य को हराया था. 2007 के चुनाव में कायमगंज सीट पर बीएसपी ने अपना परचम लहराया और कुलदीप गंगवार ने कांग्रेस की लूइस खुर्शीद को हराया था. इसी क्रम में 2012 के चुनाव में सपा ने अपना झंडा गाड़ दिया. जिसमें सपा प्रत्यासी अजीत कुमार ने बीजेपी के अमर सिंह को हराया. वहीं 2017 के चुनाव में इस सीट (Kaimganj Assembly Seat) पर बीजेपी ने सेंध लगा दी और अमर सिंह ने सपा की डॉ. सुरभि को हराया.

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बहरहाल, अगर कायमगंज सीट को ध्यान से देखें तो जनता ने यहां हर बार उम्मीदवार को बदल दिया है. यहां किसी भी पार्टी को दोबारा मौका नहीं दिया जाता है. यहां निर्दलीय भी चुनाव जीतने की ताकत रखते हैं. क्योंकि यहां जनता ही उम्मीदवारों का फैसला करती है.

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