डॉ अश्वनी कुमारः हरित क्रांति के पूर्व भारत हजारों वर्षों से चली आ रही परंपरागत कृषि के तरीकों को अपनाता था. इन तरीकों को अपनाने के कारण इसके सभी प्रकार के कृषि उत्पादों जैसे फल, सब्जियां तथा अनाजों में भरपूर पोषण की मात्रा रहती थी. जिनका सेवन करने से भारतीयों के अंदर भरपूर ताकत, इम्यूनिटी, स्वाद एवं तृप्ति होती थी. भारत में हरित क्रांति का पहला चरण 1965- 66 में आया इसमें भारत के अधिकांश प्रदेश जिसमें विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, हिमाचल प्रदेश ने अग्रिम भूमिका निभाई. हरित क्रांति का दूसरा चरण 1990 में आया जिसमें भारत के लगभग सभी राज्य शामिल होते चले गए.

भारतीय वैज्ञानिक श्री राजीव दीक्षित जी ने भारत के एक बड़े इतिहासकार प्रोफेसर धर्मपाल जी के सहयोग से लंदन स्थित इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी में जहां हाउस ऑफ कॉमंस लाइब्रेरी के दस्तावेज हैं को प्राप्त किया. उपलब्ध दस्तावेजों एवं प्रमाणों के आधार पर उन्होंने बताया कि आज से 200-300 वर्ष पूर्व भारत की कृषि यूरोप के देशों की कृषि से श्रेष्ठ थी उदाहरण के लिए उस समय लंदन के एक एकड़ खेत में जितना अनाज का उत्पादन होता था उससे तीन गुना ज्यादा उपज भारत के एक एकड़ में होता था. इस प्रकार भारतीय कृषि विश्व में सदा हीं श्रेष्ठ रही. भारतीय कृषि गौ आधारित कृषि रही है. इसकी समृद्धि का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भारत में एक कहावत प्रचलित है कि “उत्तम खेती मध्यम बान, नीच चाकरी कुक्कर निदान” अर्थात कृषि कार्य हमारे समाज में सर्वोत्तम कार्य है, व्यापार को मध्यम स्तर का कार्य कहा गया है और नौकरी को निकृष्ट कार्य कहा गया है. इसे कुत्ते की तरह दुम हिलाने जैसी संज्ञाएँ हमारे बुजुर्ग देते आये हैं. आज से 200-300 वर्ष पूर्व कृषि कार्य को एक श्रेष्ठ कर्म माना जाता था और हमारे कृषक समृद्धसाली होते थें. हरित क्रांति के पूर्व भारतीय कृषि में किसानों के द्वारा खेतों में किसी भी प्रकार के रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का प्रयोग नहीं किया जाता था.

रासायनिक खादों के रूप में यूरिया, डीएपी, सिंगल फास्फेट, सुपर फास्फेट तथा पेस्टिसाइड एवं इंसेक्टिसाइड के रूप में एंडोसल्फान, मेलाथियान, पेराथियान, बेंजीन हेक्सा क्लोराइड, क्लोरो पायरीफॉस, मोनोक्रोटोफॉस, डाई क्रोमेट, डीडीटी, जैसे 56 जहरीले कीटनाशक जो अमेरिका में पिछले लगभग 30 वर्षों से बंद है वह सारी कंपनियां और उनकी टेक्नॉलॉजी भारत में आकर बड़े पैमाने पर इनका उत्पादन कर रही हैं.

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द्वितीय विश्व युद्ध के समय (1939 से 1945) इसमें बड़े पैमाने पर बम-बारूद और रासायनिक हथियारों का निर्माण किया गया विश्व में एक बहुत बड़ी पूंजी आयुध निर्माण संबंधी कार्यों के लिए लगाई गई. द्वितीय विश्व युद्ध जब समाप्त हो गया तब हथियार एवं युद्ध के सामानों को बनाने के लिए इकट्ठा की गई कच्ची सामग्रियों की आवश्यकता नहीं रह गयी. इस कारण इसमें लगाई गई पूंजी डूबने की स्थिति पैदा हो गई. इसके समाधान के रूप में आयुध निर्माण संबंधी कच्चे माल के द्वारा रासायनिक उर्वरकों एवं रासायनिक कीटनाशकों का निर्माण किया गया. इसके पश्चात पूरे विश्व भर में यह बात फैलाई गई कि अगर हमें कृषि का उत्पादन बढ़ाना है और बढ़ती हुई आबादी का भरण-पोषण करना है तो रासायनिक उर्वरकों एवं रासायनिक कीटनाशकों का प्रयोग करना हीं पड़ेगा.

शुरुआत में दुनिया के विभिन्न देशों की सरकारों के माध्यम से बहुत ही सस्ती कीमत पर अथवा नि:शुल्क उपलब्ध कराया गया. रसायनिक खादो एवं रसायनिक कीटनाशकों के प्रयोग की इसी शुरुआत को उन्होंने एक सुनहरा नामकरण किया “हरित क्रांति”. जबकि यह वास्तव में आने वाले दशकों में गंभीर स्वस्थ्य संबंधी परेशानियों की शुरुआत थी. 1960 के दशक (1965-66) में जब भारत में हरित क्रांति की शुरुआत हुई तब शुरुआत में किसानों को यह रासायनिक सामग्रियां विभिन्न प्रदेश एवं देश की सरकारों के द्वारा मुफ्त में उपलब्ध कराई गई. कृषि जब धीरे-धीरे इसी के ऊपर आश्रित होने लगी और भारत के किसानों ने अपनी परंपरागत कृषि को धीरे-धीरे कम करना शुरू किया और अंततः बंद ही कर दिया. हमारे खेतों को जब इन रसायनों की आदत लग गई तब इन्हें खरीदकर उपयोग किया जाने लगा. कृषि के रासायनिकरण के इस अभियान को एक सुनहरा नाम दिया गया “हरित क्रांति”. हरित क्रांति के पश्चात कृषि में विभिन्न आधुनिक उपकरणों का प्रयोग किया गया जिसमें बैलों की उपयोगिता को ही समाप्त कर दिया गया. फिर शुरू हुआ आयुध सामग्रियों को बनाने वाली उन कंपनियों की सोची-समझी रणनीति के तहत रासायनिक उर्वरकों एवं रासायनिक कीटनाशकों का फलता-फूलता व्यापार. आगे इस व्यापार की उपलब्धि यह रही की विश्व में नए-नए बीमारियों का आगमन और उनके आधुनिक उपचार के एक नए आयामों की शुरुआत.

आज भारत की पूरी कृषि व्यवस्था रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के ऊपर ही आधारित है. राजीव दीक्षित जी के अनुसार प्रतिवर्ष लाखों मिट्रिक टन रसायनिक खाद यूरिया, डीएपी, सुपर फास्फेट इत्यादि के नाम हमारे खेतों की धमनियों में डाल दिया जाता हैं. इसके साथ-ही-साथ रसायनिक कीटनाशकों के रूप में हजारों मिट्रिक टन कीटनाशक का प्रयोग पूरे देश भर में किया जाता है. इसके साथ-ही-साथ एक करोड़ लीटर से ज्यादा तरल कीटनाशकों का उत्पादन और प्रयोग देशभर में होता है. जिसमें 786 प्रकार के कीटनाशकों और 219 प्रकार के जंतु नाशक दवाओं का प्रयोग किया जाता है. इन कीटनाशकों के उपयोग करते समय अगर इनकी मात्रा का ध्यान नहीं रखा जाए तो इसके बहुत ही दुष्प्रभाव होते हैं हजारों किसान प्रति वर्ष से प्रभावित होते हैं जिनमें से काफी मौतें भी हो जाती हैं. भारत सरकार के आंकड़ों के अनुसार इनसे प्रतिवर्ष होने वाली मौतों की संख्या 76 हजार है. इन कीटनाशकों के उत्पादन में दुनिया की लगभग 24 देशों के 1000 से भी ज्यादा कंपनियां लगी हुई हैं. इन कंपनियों में से कुछ का तालमेल भारत की कीटनाशक बनाने वाली कंपनियों से भी है.

एक बड़ी महत्वपूर्ण बात राजीव दीक्षित जी ने बताया कि भारत सरकार के आंकड़ों के अनुसार अगर इन जहरीले रसायनों का प्रयोग नहीं किया जाए तो लगभग 1500 करोड़ के फसल का नुकसान होगा जबकि इन कीटनाशकों के प्रयोग में 5 लाख करोड़ रुपए पूरे देश का खर्च हो जाता है. दुनिया के लगभग 150 देशों में यही कंपनियां इसी प्रकार का व्यापार कर रही हैं.

दुनिया भर के देशों में विशेषज्ञों ने अपने अध्ययनों में यह पाया है कि हम जितनी ज्यादा मात्रा में रसायनिक खादों का प्रयोग कृषि में करते हैं उतनी ही बड़े पैमाने पर कीटनाशकों का भी प्रयोग करना पड़ता है. क्योंकि रसायनिक खादों के प्रयोग करने से पौधों के अंदर प्राकृतिक रोग प्रतिरोधक क्षमता अर्थात इम्यूनिटी काफी कमजोर हो जाती है; जिसके कारण उनके विभिन्न तरह की बीमारियों एवं कीटों के प्रकोप की संभावना काफी बढ़ जाती है अर्थात पौधे की कमजोर इम्यूनिटी के कारण कीड़ों और फंगस आदि के लिए एक अनुकूल माहौल बन जाता है. फसलों के ऊपर प्रयोग किए गए कीटनाशकों की थोड़ी मात्रा पौधे के लिए इस्तेमाल होती है बाकी सब भूमि और जमीन के जल को जहरीला बनाता है. फसलो द्वारा उत्पन्न अनाजों के माध्यम से यह जहरीले रसायन हमारे शरीर में आते हैं. जिससे हम आजकल गंभीर बीमारियों के शिकार हो जाते हैं जिनके इलाज में हमारा पूरा जीवन गुजरता है और अत्यधिक पैसा भी खर्च होता है. आज भारत के शहरों एवं गांवों में लगभग एक समान स्थितियां पैदा हो चुकी हैं. इन बीमारियों के रूप में लोग विभिन्न प्रकार के कैंसर, हृदय रोग, मानसिक रोगों के शिकार हो रहे हैं.

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रसायनिक खादों एवं कीटनाशकों के प्रयोग के कारण भारतीय कृषि; किसानों के ऊपर आर्थिक बोझ बनती चली जा रही है. इन रसायनों के कारण किसानों के मित्र कहे जाने वाले केचूए पिछले 25-30 सालों से हमारे खेतों से गायब हो चुके हैं. यह केंचुआ भूमि की उर्वरता एवं जल को जमीन में संचय करने के लिए बहुत ही आवश्यक है. भारत के खेतों में इतने ज्यादा रसायन डाले जा चुके हैं कि उसकी एक पथरीली सतह जमीन के थोड़े ही नीचे बन चुकी है. इस कारण बरसात का पानी हमारे भूमि के अंदर नहीं पहुंच पा रहा है और संपूर्ण भारत के जल का स्तर धीरे-धीरे घटता ही चला जा रहा है. वर्षा का ज्यादा-से-ज्यादा पानी नदियों में चला जा रहा है और वर्षा में उत्तरोत्तर कमी होने के बावजूद यही बाढ़ की विभीषिका के रूप में हमारे सामने आ रहा है.

लगातार बढ़ती हुई कृषि लागत के कारण हमारे अन्नदाता किसान कर्ज में डूबकर आत्महत्या करते हैं एवं गरीबी रेखा से नीचे चले जाने की स्थितियां लगातार पैदा होती जा रही हैं. 

इन रसायनों से फसल पैदा करने वाले किसानों का हीं नहीं बल्कि उपयोग करने वाले लोगों की इम्यूनिटी भी उत्तरोत्तर कमजोर एवं विभिन्न कुपोषण संबंधी व्याधियों के शिकार होते चले जाते हैं. इसी पोषक गुणवत्ता में कमी के कारण बहुत सारी कंपनियां विभिन्न तरह के उत्पादों द्वारा “न्यूट्रीशन” के नाम पर एक बड़ा ही खेल कर रही हैं और अपने प्रोडक्ट और फूड सप्लीमेंट का बहुत बड़ा बाजार बना चुकी हैं. जो आम आदमी के सेहत के साथ-साथ रसोई घर के बजट को बिगाड़ रहा है.

रासायनिक खादों एवं उर्वरकों के दुष्प्रभाव को जानने के लिए दूध पिलाने वाली माताओं के ऊपर आईआईटी कानपुर के रिसर्च साइंटिस्ट डॉक्टर रश्मि सांघी ने गहन शोध किया और अपने रिसर्च में पाया कि मां के दूध में एंडोसल्फान 800% और क्लोरीपायरीफास 400% तक था.

केरल को प्रकृति ने बेइंतहा हरियाली और खूबसूरती प्रदान की है. यहां के कासरगोड जिले के 15 हजार एकड़ भूमि पर लगे काजू के खेतों के ऊपर 1976 ईस्वी से 2000 ईस्वी तक बड़ी भारी मात्रा में एंडोसल्फान नामक जहरीला कीटनाशक हेलीकॉप्टर के माध्यम से 25 वर्षों तक स्प्रे कराया गया. विशेषज्ञों की मानें तो लगभग 22 लाख लीटर एंडोसल्फान का जहर वहां की जमीन में डाल दिया गया. इतने लंबे वर्षों तक इसके प्रयोग करने से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष हजारों लोग इससे प्रभावित हुए. लगभग 5 हजार से भी अधिक लोग सीधे तौर पर इसके दुष्प्रभावों के शिकार हुए. डॉ. मोहन कुमार जो कि पिछले 30 वर्षों से भी अधिक समय से प्रभावित हुए लोगों से सीधे जुड़े हुए हैं और उनकी चिकित्सा कर रहे हैं. इनके अनुसार इसके दुष्प्रभाव के रूप में गंभीर चर्म रोगों, विभिन्न प्रकार की शारीरिक विकलांगता, विभिन्न प्रकार की मानसिक विकलांगता जैसे मानसिक मंदता, न्यूरोलॉजिकल प्रॉब्लम, सेरेब्रल पाल्सी, मिर्गी के दौरे तथा लकवा, विभिन्न तरह के कैंसर, दृष्टिहीनता, स्त्रियों में बांझपन, गर्भपात. यहां तक कि एक ही स्त्री को लगभग 10-10 बार तक गर्भपात, जन्म लेने वाले बच्चों के मस्तिष्क तथा शरीर के विभिन्न अंगों का समुचित विकास ना हो पाना इत्यादि समस्याएं उनके समक्ष आयीं हैं.

जिस जगह पर रासायनिक स्प्रे किया जाता है उस जगह के आसपास अगले 15 दिनों तक नहीं जाना चाहिए यहां तक कि उसके आसपास से भी गुजरना भी स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होता है. कीटनाशक कंपनियों के लिए इस तरह के इंस्ट्रक्शन उनके यूजर्स मैनुअल का एक हिस्सा होती है. लेकिन इसके ऊपर अवेयरनेस तथा इंप्लीमेंटेशन की देश भर में भारी कमी है. जिसका खामियाजा लोगों के स्वास्थ्य के उपर दुष्प्रभाव के रूप में भुगतना पड़ता है. एंडोसल्फान के धड़ल्ले से उपयोग के कारण उन इलाकों में मौतों की संख्या भी बढ़ने लगी. रूह को कंपा देने वाली इन दर्दनाक एवं खौफनाक मौतों के बाद न्यायालय के आदेश पर जब 2000 में इस कीटनाशक के छिड़काव को बंद कराया गया. तब जाकर अगले कुछ वर्षों में यह समस्या धीरे-धीरे कम होने लगी.

विकसित देशों में प्रतिबंधित बहुत से कीटनाशक भारत में धड़ल्ले से प्रयोग किए जा रहे हैं यहां तक कि जो कंपनियां वहां जिन कीटनाशकों का उत्पादन बंद कर चुकी हैं वहीं भारत में आकर उनका उत्पादन बड़े पैमाने पर कर रही हैं. जो हमारे देश के भविष्य के लिए बहुत ही खतरा है. इससे जल, जमीन, नदियां, जीव-जंतु तथा मनुष्य बहुत ही तेजी से बर्बादी की तरफ बढ़ रहे हैं.

मोनोक्रोटोफॉस जो कि सब्जियों पर छिड़कना प्रतिबंधित है लेकिन भारतीय एवं विदेशी कंपनियां ऐसे बहुत से कीटनाशकों को बड़े पैमाने पर प्रमोट कर रही हैं. इसके लिए एजेंटों एवं दुकानदारों को कई तरह के प्रलोभन भी दे रही हैं.

पंजाब भारत की कुल भूमि का 2 परसेंट है और यहां रसायनों के प्रयोग का प्रतिशत पूरे देश में प्रयोग की जाने रसायनों का 15-18 प्रतिशत है. यह रसायन पूरे देश में अत्यधिक तेजी से बढ़ती हुई कैंसर अन्य गंभीर बीमारीयों के लिए बहुत ज्यादा जिम्मेदार हैं. पंजाब से राजस्थान के बीकानेर में एक चैरिटेबल कैंसर अस्पताल में जाने के लिए एक ट्रेन चलती है इसका नाम ही कैंसर ट्रेन रख दिया गया है.

डॉ. वैभव कुमार, नयी दिल्ली के अनुसार 1950 के बाद स्त्रियों में होने वाले ब्रेस्ट कैंसर के लिए डी.डी.टी. और बेंजीन हेक्सा क्लोराइड कीटनाशकों की अहम भूमिका पाई गई है. कृषि में प्रयोग होने वाले पेस्टिसाइड दो में कई पेस्टिसाइड परसिस्टेंट पेस्टिसाइड होते हैं अर्थात यह वातावरण में जल्दी टूटते नहीं है और इनका असर एक साल से लेकर कई दशक तक होता है. एक बार प्रयोग होने के बाद डी.डी.टी. का प्रभाव समाप्त होने में 30 वर्षों का समय लगता है. डॉ. श्री गोपाल काबरा, जयपुर राजस्थान के अनुसार गर्भ में पल रहे बच्चों के मस्तिष्क तथा शरीर के अंगों के निर्माण के लिए फोलिक एसिड अर्थात विटामिन बी-9 बहुत ही जरूरी है. लेकिन कुछ पेस्टिसाइड इतने खतरनाक होते हैं कि वह फोलिक एसिड को नष्ट करते हैं. कुछ पेस्टिसाइड टेरेटोजेनिक विकृतियों के लिए भी जिम्मेदार होते हैं. टेरेटोजेनिक का अर्थ है गर्भ में पल रहे बच्चों के शारीरिक विकास में बाधा अर्थात उनके अंदर जन्मजात विकृतियां आ जाती हैं. इन विकृतियों के रूप में जननांगों की विकृतियां अर्थात लिंग का पुरा नही बनना, पेशाब और मल का रास्ता सही से नहीं बनना इत्यादि.

हैदराबाद के एग्रीकल्चर साइंटिस्ट डॉ. जी वी रामंजनेयुलु ने कृषि के क्षेत्र में किए गए गहन अध्ययनों के आधार पर बताया है कि जिन इलाकों में पेस्टिसाइड अर्थात कीटनाशकों का प्रयोग ज्यादा होता है वहां पर कीड़ों की समस्या भी कहीं ज्यादा होती है. इसी को ध्यान में रखते हुए इन्होंने नॉन पेस्टिसाइड मैनेजमेंट जैसे फेरोमोन ट्रैप, येलो ट्रैप इत्यादि का पूरे आंध्र प्रदेश के गांव-गांव में प्रचार करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. इसके अंतर्गत रासायनिक कीटनाशकों के बगैर की फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़ों का प्रबंधन किया जाता है.

ऐसा नहीं है कि प्राकृतिक खेती एवं उसके उत्पादन क्षमता में वृद्धि प्राकृतिक तरीकों से संभव नहीं है. साल 2003 में सिक्किम राज्य सरकार ने एक ऑर्गेनिक स्टेट में बदलने का संकल्प लिया. जिसके बाद साल 2016 में अपनी नीतियों और प्रयासों से सिक्किम दुनिया का सबसे पहला ऑर्गेनिक राज्य घोषित हुआ.

इसके लिए संयुक्त राज्य के खाद एवं कृषि संगठन (FAO) ने सिक्किम को अपनी सर्वश्रेष्ठ नीतियों के लिए ऑस्कर अवार्ड दिया. यहाँ सौ प्रतिशत ऑर्गेनिक खेती होती है. करीब पच्चीस नामांकित राज्यों को पछाड़कर सिक्किम को यूएन ने ये खिताब दिया.

ऑर्गेनिक फार्मिंग की वजह से 66,000 किसानों को फायदा मिला. यही नहीं इस वजह से सिक्किम में आज के समय में करीब 50 प्रतिशत पर्यटन में भी इज़ाफा हुआ है. यह इज़ाफा साल 2014 से 2017 के बीच देखने को मिला.

संयुक्त राज्य ने इस पुरस्कार को देते समय सिक्किम के इसे भूख और गरीबी से लड़ने और पर्यावरण की रक्षा करने वाला कदम बताया था. जैविक खेती में गोबर खाद, कम्पोस्ट खाद, हरी खाद, बायो-पेस्टिसाइड, केंचुआ खाद, नीम खली, लेमन ग्रास और फल के अवशेष का प्रयोग किया जाता है. इसमें जीवाणु कल्चर फॉलो होता है. 

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सिक्किम में 19 साल पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री पवन चामलिंग ने इस योजना की शुरुआत की. इसके लिए केमिकल यानी रासायनिक कीटनाशकों की जगह जैविक कीटनाशकों के इस्तेमाल पर जोर दिया गया. अपनी इस कार्य योजना में सिक्किम सरकार ने केमिकल खाद और कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगा दिया.साथ ही इस कानून का उल्लंघन करने पर एक लाख के जुर्माने समेत तीन महीने की कैद का प्रावधान किया गया है.

रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों के बगैर खेती को प्रोत्साहित करने की दिशा में कुछ लोगों ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है जिसमें आई.आई.टी. के वैज्ञानिक श्री राजीव दिक्षित जी तथा कृषि विशेषज्ञ सुभाष पालेकर ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने देश भर में प्राकृतिक कृषि अथवा जीरो बजट कृषि का प्रचार-प्रसार किया है.

इसके साथ ही भारतीय जैविक कृषि अनुसंधान विभाग के गाजियाबाद पूर्व डायरेक्टर डॉ. किशन चंद्रा ने वेस्ट डी कंपोजर नामक एक प्राकृतिक कचरा अपघटक खोज करके केमिकल फ्री खेती में एक बहुत बड़ा योगदान दिया है जो एक मील का पत्थर साबित हो रहा है. ईस वेस्ट डीकंपोजर में देसी गाय के गोबर से निकाले हुए तीन प्रकार के बैक्टीरिया हैं जिनमें एक मिट्टी को मुलायम बनाता है, दूसरा मिट्टी के अंदर पोषक तत्वों का बिघटन करके पौधों के उपयोग के लायक बनात है और तीसरा पौधे को इम्यूनिटी प्रदान करता है. वेस्ट डीकंपोजर से कीटनाशक भी बनाया जाता है. इसके लिए इस घोल में नीम, शरीफा, आंक, बेशर्मी, हल्दी तथा मिर्च इत्यादि डालकर यह कीटनाशक बनाए जाते हैं. जिसका स्प्रे करके विभिन्न तरह के कीटो तथा सूक्ष्म जीवों के संक्रमण से फसलों को बचाया जाता है.

इसी प्रकार से गुजरात के अहमदाबाद में बंसी गिर गौशाला के संस्थापक गोपाल सुतारिया ने एक कदम आगे बढ़ाते हुए एक विशेष रसायन का निर्माण किया है जो देसी गाय के गब्यों से बनाया गया है. इसका नाम गौ कृपा अमृतम रखा गया है. यह एक प्रकार का ऐसा बैक्टीरियल घोल है जिसे खेतों में प्राकृतिक उर्वरकों के रूप में एवं कीटनाशकों के रूप में प्रयोग करके जमीन की उर्वरता बढ़ाने के साथ ही साथ अत्यधिक रसायन एवं यूरिया इत्यादि के प्रयोग से जमीन के नीचे इनकी एक कठोर सतह बन गई है उसका को 3 से 6 महीने में और एक साल के अंदर पूरी तरह से डीकंपोज करके जमीन को पहले की तरह प्राकृतिक बनाया जा सकता है. इस घोल के सतत प्रयोग करने से हमारे खेतों के देसी केंचुए पुनः जीवित होने लगते हैं वह खेतों में वापस आने लगते हैं. केंचुए हमारे किसानों के मित्र हैं लेकिन पिछले 30 से 40 वर्षों में लगातार रसायनों के प्रयोग से यह जमीन के बहुत गहराई में चले गए हैं अथवा मर गए हैं. जिसके कारण खेतों की प्राकृतिक उर्वरता का बहुत ही बड़ा नुकसान हुआ है. हमारे देशी केंचुए(फेरेटिमा पोस्टहुमा) जमीन में 10 से 12 फीट गहराई तक जमीन के अंदर आ और जा सकते हैं और फिर दूसरे रास्ते से ऊपर आते हैं इस प्रकार पूरी जमीन भुरभुरी तथा कोमल हो जाती है और हवा युक्त भी हो जाती है. साथ ही ये केंचुए जमीन के अंदर के बहुत सारे अपशिष्ट पदार्थों को खाकर उच्च क्वालिटी का केंचुआ खाद तैयार करते हैं. मिट्टी के भुरभुरी और छीद्रदार होने से बरसात का पानी बहुत बड़ी मात्रा में भूमि के अंदर जाता है जो भूमिगत जल स्तर को बढ़ाने बहुत ही कारगर होता है. जबकि यह विदेशी केंचुए (आईसीनिया फोटिडा एवं यूड्रिलस यूजिनी) जमीन में मात्र 2 से 3 फीट ही जमीन के अंदर जा सकता है.

विदेशी केंचुए के द्वारा बनाया गया खाद विषयुक्त होता है जो भूमि की उर्वरता बढ़ाने की जगह उसकी उर्वरता एवं ऊर्जा को नष्ट करती है. इसका प्रमाण हिमाचल प्रदेश सोलन के वैद्य राजेश कपूर जी ने हिमाचल के हॉर्टिकल्चर यूनिवर्सिटी तथा के छत्तीसगढ़ के एक जिले में कृषि अधिकारियों के समक्ष ऊर्जा विज्ञान के आधार पर इसका प्रत्यक्ष प्रमाण एवं प्रदर्शन किया हैं.

आधुनिक अध्ययन में यह पाया गया है कि हमारे देसी गाय के गोबर के अंदर प्रति ग्राम 30 करोड़ तक सूक्ष्म बैक्टीरिया होते हैं जो हमारे खेतों के लिए बहुत ही लाभदायक होते हैं. यह मिट्टी के लिए मित्र बैक्टीरिया होते हैं. गोबर केंचुए का प्राकृतिक आहार है. जर्सी होल्सटीन फ्रीजियन एचएफ गाय के 1 ग्राम गोबर में मात्र 60-70 लाख बैक्टीरिया होते हैं साथ ही इसका गोबर मिट्टी की उर्वरता को नष्ट करता है. भारतीय देसी गाय हजारों सालों से भारतीय कृषि चिकित्सा एवं स्वास्थ्य का मूल केंद्र रही हैं यह प्रकृति का दिया हुआ वह उपहार है जो आज के आधुनिक समय में हम मनुष्यों की सारी जरूरतों को पूरा कर सकता है. चाहे वह ऊर्जा संकट हो, गंभीर बीमारियों का उपचार हो, रोजगार के साधनों को मुहैया करवाना हो अथवा दैनिक जीवन की उपयोगि सैकड़ों तरह की वस्तुओं के निर्माण करने की बात हो. देशी गोवंश सभी मापदंडों पर 100% खरा उतरता है. विश्व के कई देशों में इस पर गहन शोध हो रहा है जैसे जर्मनी, जापान इत्यादि. भारतीय कृषि को कमजोर करने के लिए अंग्रेजों ने 90% तक लगान लगा दिया था अर्थात अगर कोई किसान 100 किलो अनाज पैदा करता था तो 90 किलो लगान अथवा टैक्स के रूप में अंग्रेजी हुकूमत ले लेती थी और किसानों के लिए मात्र 10% ही शेष बचता था और अगर कोई किसान ऐसा नहीं कर पाता था तो उस पर रूह कपा देने वाले तरह-तरह के अत्याचार किए जाते थें.

भारतीय अर्थव्यवस्था में देसी गायों की इसी महत्ता को समझते हुए अंग्रेजों ने देसी गोवंश की समाप्ति के लिए अपना पूरा जोर लगा दिया. चाहे वह बड़े पैमाने पर कत्लखानों की शुरुआत हो अथवा वेटनरी संस्थानों कि पूरे देश में व्यवस्था. वह व्यवस्था आज भी उसी के नक्शे कदम पर चल रही है. क्योंकि आज जो भी प्रशासनिक व्यवस्था चल रही है उसका पूरा ढांचा अंग्रेजों का बनाया हुआ है जो केवल और केवल उन्हीं के लाभ के लिए था और आज भी अप्रत्यक्ष रूप से है. देसी गाय का महत्व दूध से कहीं ज्यादा उसके गोबर और गोमूत्र से है. गोमूत्र का उपयोग करके जहरीले कीटनाशकों से बेहतर उपज एवं फसल ली जा सकती हैं. देसी गाय का गोमूत्र पौधे के लिए टॉनिक का भी बहुत बड़ा कार्य करता है. गाय एक चलता फिरता उद्योग है जो हरी अथवा सुखी घांस को खाकर ऐसा इंधन (मीथेन गैस) दे सकती है जिससे बिजली निर्माण, बड़े-बड़े यातायात के साधना एवं माल ढुलाई के साधनों को चलाने में किया जा सकता है. यह तरीका ऊर्जा का एक बहुत बड़ा अक्षय स्रोत है अर्थात कभी नहीं खत्म होने वाला स्रोत है. वैज्ञानिक श्री राजीव दीक्षित ने बताया था कि अगर भारत में देसी गायों की संख्या बढ़ाने पर युद्ध स्तर पर काम किया जाए तो एक समय ऐसा आएगा जब हम अपनी उर्जा खपत का पूरा हिस्सा इन गायों प्राप्त गोबर द्वारा मीथेन गैस का उत्पादन करके पूरी कर पाएंगे और हमें बाहर से इंधन के रूप में ₹1 का भी पेट्रोल एवं डीजल खरीदने की आवश्यकता नहीं होगी.

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भारत के लिए इससे बड़ी बात और खुशखबरी क्या होगी आज देश की अर्थव्यवस्था का एक बहुत बड़ा हिस्सा पेट्रोल एवं डीजल के आयात में चला जाता है अगर यह राशि बचे तो देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने में बहुत हीं ज्यादा कारगर होगी.

ऑर्गेनिक सब्जियों के लाभ

1. इसमें प्रोटीन, विटामिन, कार्बोहाइड्रेट और खनिज की प्रचुर मात्रा होती है. चौलाई के साग में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, कैल्शियम और विटामिन-ए, मिनरल्स और आयरन प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं.

2. सभी प्रकार के पत्तेदार साग-सब्जी्यों का नियमित सेवन करने से वात, रक्त व त्वचा विकार दूर होते हैं.

3. बथुआ एक वनस्पति है, जो खरीफ की फसलों के साथ उगती है. बथुए में लोहा, पारा, सोना और क्षार पाया जाता है. बथुए में आयरन प्रचुर मात्रा में होता है.

4. जैविक सब्जियों में फास्फोरस, कैल्शियम, खाद्य रेशा, विटामिन ए, विटामिन बी, विटामिन सी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध रहते हैं.

5. यह सब्जियां कठोर नहीं बल्कि कोमल होती हैं. सब्जी बनाने के क्रम में उसे देखा एवं महसूस किया जा सकता है.

6. इन सब्जियों को बनाने में रसोई घर में कम इंधन की खपत होती है. क्योंकि इन शब्दों में कठोरता की जगह कोमलता होती है.

7. इन सब्जियां का स्वाद बहुत हीं लजीज एवं आनंद देने वाला होता है.

8. इन सब्जियों को थोड़ी सी सावधानी के साथ काफी लंबे समय तक तरोताजा बनी रहती हैं.

9. केमिकल एवं रासायनिक कीटनाशक वाली सब्जियां जल्द हीं गल जाती हैं. जबकि ये सब्जियों धीरे-धीरे सूखती हैं.

10. यह सब्जियां इम्यूनिटी और पोषक तत्वों से भरी होती हैं. इन सब्जियों को नियमित खाने से इनके अंदर की इम्यूनिटी हमारे शरीर का एक अभिन्न हिस्सा बन जाती हैं. जो हमारी इम्यूनिटी को बढ़ाती हैं. यही इम्यूनिटी हमें विभिन्न बीमारियों से और वातावरण में होने वाले बदलाव से हमारी सुरक्षा करती है.

हमें अपने जीवन में स्वाद, सेहत, स्वास्थ्य और इम्युनिटी को बेहतर बनाना है और इस दिशा में सकारात्मक प्रयास करना होगा. हमें जहरीले एवं केमिकल वाले अनाजों, फलों एवं सब्जियों के स्थान पर इन जहरमुक्त और इम्यूनिटी युक्त अनाजों, फलों एवं सब्जियों को जल्द-से-जल्द अपने रसोई का अंग बनाना ही होगा.

योग गुरु गब्यसिद्ध डॉ अश्वनी कुमार

“ये लेख योग गुरु गब्यसिद्ध डॉ अश्वनी कुमार द्वारा लिखी गई है. जो एक योग शिक्षक हैं उन्हें काफी सालों का अनुभव है. इसके अलावा वह सामाजिक उत्थान पर अपने विचार भी रखते हैं. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं. Opoyi इसके लिए न तो उत्तरदायी है और न ही जिम्मेदारी लेता है.”