भारत की आजादी की बात की जाए और भगत सिंह   (Bhagat Singh) का नाम न लिया जाए ऐसा हो नहीं सकता. आजादी की लड़ाई में भगत सिंह का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा गया है. भगत सिंह वो नाम है जो 23 साल की छोटी सी उम्र में देश को गुलामी की जंजीरों से आजाद कराने के लिए खुद हंसते-हसंते फांसी के फंदे पर झूल गए. देश के ऐसे लाल का जन्म 27-28 सितंबर को लायलपुर के बंगा गांव में हुआ था, जो कि अब पाकिस्तान (Pakistan) का भाग है. भगत सिंह ने देश को अंग्रजों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दी. उन्होंने अंग्रेजों का डटकर सामना किया. भगत सिंह के आजादी के जूनून ने अंग्रेजों को खौफजदा कर दिया था.

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यदि यह कहा जाए कि देशभक्ति भगत सिंह के लहू में थी तो ये गलत न होगा. क्योंकि उनके दादा अर्जुन सिंह, उनके पिता किशन सिंह और चाचा अजीत सिंह गदर पार्टी के हिस्सा थे. 13 अप्रैल 1919 में जब जलियावाला बाग में नरसंहार हुआ था तो भगत सिंह ने उसे अपनी आंखो से देखा था, जिसे देखकर वो बैचैन हो उठे थे. इस नरसंहार ने भगत को इतना झकझोर दिया कि उन्होंने अपनी कॉलेज की पढाई को बीच में ही छोड़ दिया और मन में आजादी का संकल्प ले इस लड़ाई में कूद पड़े.

भगत सिंह की मां चाहती थी कि भगत शादी कर ले और अपना घर बसा ले, लेकिन किस्मत को कुछ और मंजूर था. भगत की मां की ये इच्छा पूरी न हो सकी. मां के शादी करने की बात पर वो कानपुर चले गए और जाते-जाते कह गए कि इस गुलाम धरती पर मेरी दुल्हन बनने का हक़ सिर्फ मेरी मौत को है.

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23 साल की उम्र में हुई फांसी

भगत सिंह आजादी की इस लड़ाई में अपने साथी राजगुरु और सुखदेव के साथ दुनिया को अलविदा कह गए. लेकिन अपनी इस छोटी से उम्र में भगत सिंह ने अंग्रेजों को ‘नाको चने चबवा दिए’ थे  उनके आजादी की लड़ाई में शामिल होने के बाद से ब्रिटिश हुकूमत में अफरा-तफरी मच गई. अंग्रेज भगत के नाम से खौफ खाने लगे.

23 मार्च 1931 को भगत सिंह ने अपने क्रांतिकारी साथी राजगुरू और सुखदेव के साथ मिलकर असेंबली में बम फेंका था जिसके बाद अंग्रेजों ने उन तीनो को फांसी की सजा दी.जिस वक्त भगत सिंह को फांसी की सजा दी गई थी उस वक्त वो महज 23 साल का युवा थे.